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फिल्मों में आने के बाद आगरा की नूर बानो बन गयी थी सलोनी अभिनेत्री निम्मी

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अनोखी याद

हेमन्त शुक्ल (वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म समीक्षक)

रविवार सुबह-सुबह फिल्मी गीतों के प्रमुख संग्रहकर्ता आकाशवाणी के विविध भारती ने अपने “भूले बिसरे गीत” में जिन दस मधुर गीतों को सुनाया , उसने मशहूर सलोनी अभिनेत्री निम्मी के अभिनय-प्रतिभा की याद दिला दी। मशहूर फिल्मों ‘आन’(1952), ‘बरसात’(1949) और ‘दीदार’(1951) जैसी हिंदी फिल्मों में काम कर चुकीं 1950 और 60 के दशक की मशहूर अभिनेत्री निम्मी की तमाम फिल्मों की अदाकारी देखी जाए तो महसूस होगा कि अधिकांश में उसके रोल ने दर्शकों को प्रभावित किया। उनकी ऐसी फिल्मों का नाम देखें तो बरसात(1949), जलते दीप(1950), राजमुकुट(1950), वफा(1950), बड़ी बहू(1951), बेदर्दी, बुजदिल(1951), दीदार(1951), अलिफ लैला(1953), दर्दे दिल(1953), मेहमान(1953), अमर(1954), चार पैसे(1955), कुंदन(1955), उड़न खटोला(1955). बसंत बहार(1956), राजधानी(1956), चार दिल चार राहें(1959), अंगुलिमाल(1960), मेरे मेहबूब(1963), पूजा के फूल(1964), आकाशदीप(1965) और अंतिम फिल्म लव एंड गॉड(1986), जिसे गुरुदत्त के निधन के बाद संजीव कुमार को लेकर फिल्म पूरी की गयी थी और निम्मी की आखिरी फिल्म साबित हुई।
फरवरी 1978 की बात है– तब मैं बम्बई में बहुचर्चित फिल्म मैगजीन बायस्कोप में कार्यरत था और उस दौरान दो-तीन बार उनसे मुलाकात हुई थी जिनमें उन्होंने अपने बारे में कई ऐसी बातें बतायी थीं जो अमूमन सब लोग नहीं जान पाए थे। बायस्कोप के अगले अंक में इन्हीं बातचीत के आधार पर उनकी “आत्मस्वीकृति” भी प्रकाशित हुई थी। उनसे मुलाकात ऐसे हुई थी कि गोरखपुर निवासी फिल्मी दुनिया के मशहूर लेखक कवि और निर्देशक बृजेंद्र गौड़ ने एक दिन मुझे निर्माता रघुनंदन की फिल्म “चंबल की रानी” के गीत रिकॉर्डिंग के अवसर पर बुलाया। मजरूह जी के लिखे गीत को नौशाद साहब संगीत दे रहे थे और लता जी वह गाना गा रही थीं। रिकॉर्डिंग के बाद गौड़ साहब ने मुझसे कहा चलो आज निम्मी के यहां चलते हैं और उनकी आपबीती सुन के कुछ प्रकाशित करवा सको तो अच्छा रहेगा। मैंने हां कर दी और निम्मी के घर हम दोनों पहुंच गए। बृजेंद्र गौड़ जी हमारे पूर्वांचल के गोरखपुर जिले के निवासी थे और मेरा उनके यहां आना-जान अक्सर हुआ करता था। गौड़ जी ने बहुत पहले एक फिल्म कस्तूरी शुरू थी जिसकी हीरोइन निम्मी थी, हालांकि फिल्म आगे नहीं बढ़ी और प्रोजेक्ट दूसरे नाम से बनने वास्ते शक्ति दा को गौड़ साहब ने दिलाई दिया।
…खैर, वहां लम्बी बातचीत हुई जिसमें कस्तूरी की महक की तरह खुलकर आया कि उनका असली नाम नवाब बानो था जिनका जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के पास 24 मील पर एक कस्बा फतहबाद में नाना के घर हुआ था। विभाजन की त्रासदी के दौरान वहां से बम्बई अपनी नानी के पास नवाब बानो पहुंच गयीं। उनकी नानी का सम्बन्ध कई फिल्मी लोगों से था। उनके पिता अब्दुल हकीम और मां वहीदन बानो भी कलकत्ते में फिल्म निर्माता ए.आर. कारदार के पड़ोसी थे तथा उनकी कई फिल्मों में छोटे-छोटे रोल कर चुके थे और अब बम्बई में रहने लगे थे। नानी अम्मा के बुजुर्गों से महबूब साहब के अच्छे ताल्लुकात भी थे। उन्हीं के जरिए ताड़देव में रहने की जगह मिल गयी। सामने की सड़क के उस पार सेंट्रल स्टूडियो था, जहां एक दिन महबूब साहब अपनी फिल्म अन्दाज़(1949) की शूटिंग कर रहे थे, जिसमें दिलीप कुमार, राजकपूर व नर्गिस पर सीन फिल्मा रहे थे और वह नानी के साथ सेट पर पहुंच गयीं, जहाँ कुछ देर बाद राजकपूर ने उन्हें देखकर पूछा कि ऐ लड़की तुम्हारा नाम क्या है, तो उन्होंने नूर बानो बताया। तभी राज साहब ने जाकर महबूब साहब को बताया कि उन्हें अपनी फिल्म बरसात की दूसरी हीरोइन मिल गयी। दो दिन बाद स्क्रीन टेस्ट हुआ और वह पास घोषित होकर बरसात(1949) की शूटिंग करने लगीं। वह नूर बानो से निम्मी बन गयीं। उन्होंने एक रोचक बात बतायी – “यह निम्मी नाम फिल्म निर्माता-निर्देशक राजकपूर ने दिया था, जिन्होंने अपनी पिछली फिल्म “आग”(1948) की तीनों हिरोइनों का नाम निम्मी ही रखा था और फिल्म कामयाब ही नहीं प्रशंसित भी हुई थी।”
पुराने फिल्म शौकीन अच्छी तरह जानते हैं, जैसा कि ऊपर बताया भी गया है कि राजकपूर ने निम्मी को अपनी फिल्म बरसात (1949) में सेकेंड लीड के बतौर कास्ट किया था और उन पर फिल्माए फिल्म के तीन गाने “बरसात में हमसे मिले तुम…, हवा में उड़ता जाए… और मेरी पतली कमर…” काफी प्रसिद्ध हुए।
बरसात(1949) फिल्म की सफलता के बाद निम्मी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने ज़माने में वह हीरोइन के बाद दूसरा सबसे प्रसिद्ध किरदार करने के लिए जानी जाती थीं। बदकिस्मत प्रेमिका और गांव की खूबसूरत युवती के किरदारों के जरिए उन्होंने खुद को बॉलीवुड में स्थापित किया
था। अपने जमाने में उनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि फिल्म आन(1952) के डिस्ट्रिब्यूटर ने उनको लेकर एक सीन अलग से जुड़वाया था, क्योंकि उन्हें लगा कि फिल्म में निम्मी के किरदार की जल्दी मौत हो जाती है।
निम्मी ने अपने जमाने के शीर्ष अभिनेताओं के साथ काम किया था और अपनी अदायगी के लिए मशहूर थीं लेकिन फिल्म लेखक और निर्देशक एस. अलीरजा से शादी करने के लिए उन्होंने फिल्मों से अलविदा कह दिया था।
अपनी शादी का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया था कि अपनी एक ही फिल्म से सफलता की चोटी पर पहुंच जाने वाली मैं हीरो के बारे में या प्रोडूसर या डायरेक्टर की यूनिट के बारे में कभी कोई पूछताछ नहीं करती थी और हर स्टार को उसी की तरह का ही पार्टनर चाहिए था। यह मुझे उस समय मालूम पड़ा जब दिलीप साहब ने “बुजदिल(1951)” में मेरे साथ काम करने से मना कर दिया, तब उनकी जगह किशोर साहू हीरो लिये गए। दिलीप साहब यह कहते थे कि निम्मी अभी बहुत छोटी है और सुपरस्टार भी नहीं, मगर महबूब साहब ने फिल्म आन(1952) में दिलीप साहब के साथ काम करने के लिए मुझे तैयार किया और फिल्म हिट हो जाने पर तो हम दोनों की जोड़ी काफी हिट रही। इसके बाद हमने “दाग(1952), उड़न खटोला(1955)” जैसी सुपरहिट फिल्में दी। इसके अलावा बहुत साल फिल्मों में सभी तरह के कलाकारों के साथ काम करने के बावजूद मेरा कोई स्कैंडल नहीं उड़ा। मुझे एक बात का कभी अनुभव नहीं रहा, जो करीब-करीब हर पत्रकार पूछता और मुझे वही घिसा-पिटा उत्तर उन्हें देना पड़ता था— “पता नहीं भाई, मुझे किसी ने क्यों नहीं पसंद किया, वरना मैंने काम तो सबके साथ किया।” इसी बात को आगे बढ़ाते हुए निम्मी ने बताया “एक बार मैं फिल्म आंधियां(1952) की शूटिंग कर रही थी, जिसमें नायक थे देवानंद। देवानंद उस जमाने के रोमांटिक हीरो के रूप में प्रसिद्ध थे। फिल्म आंधियां में मेरे साथ की दूसरी नायिका थी कल्पना कार्तिक। शूटिंग चलती रही और जब समाप्त हुई तब कल्पना और देवानंद एक दूसरे के हो चुके थे। उस वक्त अन्य लोगों की तरह मैं यही कहती थी कि देव साहब एक रोमांटिक हीरो थे, क्योंकि मेरे साथ कुछ ऐसा अनुभव नहीं था।” उन्होंने आगे जोड़ा था कि– हां यदि कोई अनुभव है तो सिर्फ एक आदमी का और वह आदमी प्रसिद्ध लेखक अली रजा थे, जो मदर इंडिया जैसी फिल्म की एक घटना के बाद उनकी बात बन गयी थी। वह बताती गयीं– “फिल्म मदर इंडिया के लिए महबूब साहब ने मेरे पास ऑफर भेजा था। मैंने उस फिल्म में काम करने से मना कर दिया, क्योंकि तब तक मुझे मालूम हो गया था कि मैं भी सुपरस्टार हो गयी थी। दिलीप साहब की तरह !… और मदर इंडिया(1957) में कुमकुम वाला रोल मेरा था, जिसका ज्यादा महत्व नहीं था। जब मैंने महबूब साहब को उस फिल्म में काम करने के लिए मना कर दिया तब डायरेक्शन विभाग के एक महाशय भी ग्रुप छोड़ कर चले गए थे। एक दिन रास्ते में मिलने पर जब मैंने उसे पूछा आपने महबूब साहब की यूनिट क्यों छोड़ दी। तब उन्होंने बड़े ही नजाकत से बालों पर हाथ फेरते हुए कहा जबसे आपने महबूब साहब का ग्रुप छोड़ा तबसे मेरा भी दिल वहां नहीं लगता था और यही साथी थे प्रसिद्ध फिल्मी लेखक अली रजा, जिन्हें पति के रूप में मैंने स्वीकार कर लिया, जो आज भी मेरी जिंदगी के खेवनहार हैं।”
आज जब निम्मी के बारे में श्रद्धांजलि स्वरूप लिख रहा हूँ तो बता दूं कि अली रजा साहब ने निम्मी का साथ 2007 तक निभाया, जब उन्हींका जनाजा उठ गया।

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