Home न्यूज प्रेम और विवशता का दर्शन ‘सूरज का सातवां घोड़ा’

प्रेम और विवशता का दर्शन ‘सूरज का सातवां घोड़ा’

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उर्मिल रंग उत्सव की तीसरी शाम

लखनऊ, 18 जुलाई। अपनी अलग अलग सामाजिक परिस्थितियों में मानवीय संवेदनाओं के साथ व्यक्ति कैसे जी रहे हैं, इसका एक उत्कृष्ट चित्रण नाटक में देखने को मिला।
‘अंधा युग’ और ‘कनुप्रिया’ जैसी उत्कृष्ट साहित्य रचनाओं के लेखक धर्मवीर भारती की एक और कथात्मक कृति ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ आज दर्शनीय बनकर संत गाडगे जी महाराज प्रेक्षागृह में सुधि रंग प्रेमियों के सामने थी। कृति के अभ्युदय तिवारी द्वारा किए नाट्य रूपांतर का मंचन डा.उर्मिलकुमार थपलियाल फाउंडेशन की ओर से उर्मिल रंग उत्सव की तीसरी शाम कलाकारों ने विकास गौतम की परिकल्पना और निर्देशन में किया। उत्सव में चौथी शाम कल ‘थ्री स्ट्रेंजर्स’ नाटक की प्रस्तुति होगी।
नाटक की सात खंडों में विभाजित कहानी में गर्मी की दोपहर में माणिक मुल्ला के घर उनके दोस्तों का जमघट रहता है। माणिक मुल्ला अपने दोस्तों को हर दोपहर एक कहानी सुनाते हैं। माणिक मुल्ला के हिसाब से ये रुचिकर प्रेम कहानियाँ हैं। देखने-सुनने में भले ही ये कहानियाँ प्रेम कहानियों मन बहलाव का साधन लगे परंतु वास्तव में ये हमारे समाज के निम्न मध्यवर्ग की संवेदनशील तस्वीरें हैं। इनमें उन कहानियों और परिस्थितियों में आए चरित्रों की जीवन स्थितियाँ, उनकी आकांक्षाएँ, उनके साधन और उनकी विवशताएँ- सभी कुछ समाहित होकर उभरती हैं। ‘सात दोपहर’ अथवा सात अध्यायों में कही भारती की कहानियों की तकनीक और राजनीति, समाज, मनोविज्ञान आदि के विषय में उनकी समझ के संकेत भी क्रमश: इन्हीं में उपजते हैं। इसी समझ के दर्शन उनकी कहानियों के विषय और उनके इस मंचीय प्रस्तुतीकरण में भी होते हैं। प्रत्येक अध्याय के बाद एक ‘अनध्याय’ है, जिसमें पिछली कही गयी कहानी के संबंध में लेखकीय प्रतिक्रियाएँ भी मंच पर माणिक के दोस्तों के माध्यम से सामने आती हैं। माणिक और जमुना की, जमुना और तन्ना की, जमुना और रामधन की, माणिक और लिली की, तन्ना और लिली की तथा माणिक और सती की। अलग-अलग रूप से अलग-अलग बैठकों में सुनाई गयी इन कहानियों के तार मंच पर एक दूसरे से जुड़े नजर आ रहे थे। माणिक मुल्ला की उपस्थिति इन सभी कहानियों में किसी न किसी रूप में रही।कहीं तो वह इन कहानियों का एक महत्त्वपूर्ण पात्र दिखे तो कहीं वह अन्य पात्रों के क्रिया-कलापों का दृष्टा भी रहे। दूसरे शब्दों में कहें तो ये कभी माणिक की ‘आपबीती’ भी रही और जग बीती भी। प्रस्तुति का शिल्प ऐसा था कि पुरानी नानी-दादी की कहानियों की स्मृति ताज़ा हो जाती है। एक कहानी समाप्त होती है तो अगले दिन फिर दूसरी कहानी की फरमाइश। एक कहानी से दूसरी कहानी वैसे ही जड़ी दिखी, जैसे पंचतंत्र’ या ‘हितोपदेश’ आदि में निरंतर कथा और रसप्रवाह चलता है।
नाटक में मुख्य चरित्र माणिक की भूमिका में अभ्युदय तिवारी, प्रदीप कुमार व अम्बर के साथ जमुना व हकीम की पत्नी- प्रियांशी पाल, लिली- आकृति, सत्ती- निशा तिवारी, तन्ना की बहन रामो बुआ व भाभी- निशु, अम्मा- निशा तिवारी, तन्ना- उत्कर्ष, महेसर दलाल व पिता- मोअज्जम खान मैडी, रामधन व चमन ठाकुर- अंकित, तिहाजू- हिमांशु अग्रवाल, भैया व हकीम- पृथ्वी, मैं- सौरभ, ओंकार- रिकी, प्रकाश- नील, श्याम- अम्बर/ प्रदीप थे। अन्य कलाकार विनय, दीपक, शुभम, मनीष, प्रदीप, इमरान और राजवीर रहे।
मंच के पीछे के कामों में प्रकाश परिकल्पना व संचालन- मनीष सैनी, संगीत परिकल्पना व संचालन- प्रभाकर सिंह गौतम, सजीव संगीत- पृथ्वी और सिकंदर का, वस्त्र सज्जा- निशु की, मंच प्रबंधन अंबर का रहा। अन्य पक्षों में हिमांशु अग्रवाल, मनीष, प्रभाकर, उत्कर्ष और सभी कलाकारों का रहा।

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