Home न्यूज अवध की धरती के अनमोल रत्न थे नौशाद

अवध की धरती के अनमोल रत्न थे नौशाद

115
0

(जन्मदिन 25 दिसम्बर पर पुण्य स्मरण)

हेमन्त शुक्ल

आज से 103 वर्ष पूर्व लखनऊ की धरती पर हिंदी फिल्मों के मशहूर संगीत निर्देशक नौशाद का जन्म पिंडारी मोहल्ले में हुआ था। जन्म के कुछ दिन बाद उनके पिता इलाहाबाद सपरिवार चले गये थे जहां वह एक अंग्रेज पेशकार के साथ हाईकोर्ट में मुंशी थे। उनका बचपना इलाहाबाद में ही बीता। कुछ दिनों बाद परिवार फिर लखनऊ आ गया और किशोरावस्था की ओर बढ़ते हुए उन्हें संगीत से कुछ लगाव हो गया जबकि परिवार में किसी का भी संगीत से कोई नाता दूर-दूर तक नहीं था। वह तो नौशाद को मूक फिल्मों के लखनऊ में प्रदर्शन के समय मंच के पीछे बैठे हुए संगीतकारों की संगत क्या हुई संगीत के प्रति लगाव हुआ, वाद्यों की जानकारी हुई और इसमें मदद मिली अमीनाबाद में भोंदू ऐंड संस की दुकान से जहां हर तरह के इन्स्ट्र्मेंट रखें रहते थे, जिसपर रियाज करने के लिए उन्हें कल्लन साहेब की दुकान में सफाई तक करनी पड़ी थी। संगीत सीखने का यह सिलसिला चलता रहा और घर से वालिद साहब द्वारा इसकी जानकारी होते ही उन्हें घर आने से मना कर दिया गया।
मुम्बई के सहारा समय को अपने एक साक्षात्कार में नौशाद साहब ने बताया था कि यह सब वाक्यात आज भी याद दिलाता है कि कैसे-कैसे संगीत-प्रेम परवान चढ़ता गया और वह अपने एक परिचित आदिल साहब की सलाह व उनके परिचित लखनऊ के ही नामी साहब के नाम चिट्ठी लेकर बम्बई पहुंच गए जहां उनका संघर्ष उन्हें उस ऊंचाई तक पहुंचाने में सफल हो गया जिसने उनको महान संगीतकार की पदवी से सुशोभित भी किया, लेकिन आज अफसोस होता है कि उत्तर प्रदेश और खासकर लखनऊ के सांस्कृतिक समाज व फिल्मों के शौकीन भी भुलाये बैठे हैं अपने “नौशाद” को।
आज पूरी दुनिया, पूरा फिल्म जगत जानता है कि उत्तर प्रदेश के लोक संगीत का उन पर भरपूर प्रभाव रहा जो कि बचपन में मामू के साथ लखनऊ के करीब बाराबंकी के देवा शरीफ मेले में जाने से और तमाम संगीतकारों की संगत से प्राप्त हुआ। इन बातों का जिक्र करते हुए कई बार नौशाद साहब ने स्वीकार किया है कि उनके कम्पोज किये गीतों को मशहूर बनाने में उत्तर प्रदेश के लोकगीतों-संगीतों का इतना असर हुआ कि आज वह एक महान संगीतकार के रूप में प्रतिष्ठित गिने जाते हैं और हिंदी फिल्मों के संगीत को एक नयी दिशा देने का आधार भी माने जाते हैं। वह यह भी स्वीकार कर चुके हैं कि जब वह फिल्मी दुनिया में पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे तब फिल्म लाइन में बंगाल का ही संगीत होता था। यानी फिल्म संगीत का मतलब बंगाल का संगीत। शुरुआत में जो म्यूजिक कम्पोजर फिल्मों में आये वह ज्यादातर बंगाली ही थे, जैसे आर सी बोराल– बड़े उस्ताद थे गुरु थे, पंकज मलिक साहब, अनिल बिस्वास, दत्ता आदि। यही समय था कि उन्हें उत्तर प्रदेश के लोक संगीत की याद आयी। तब तक सामाजिक व प्रेम कथाएं फिल्मों का हिस्सा बनना शुरू हो गयी थीं जिनमें इन गीतों का उपयोग आराम से किया जा सकता था और उन्होंने यही किया भी।
देखा जाए तो हिंदी फिल्मों में संगीतकारों ने अपनी-अपनी प्रतिभा के मुताबिक दिया है लेकिन सफलता की दृष्टि से लखनऊ की इसी धरती से जुड़े नौशाद सबसे ऊपर की श्रेणी में गिने जाते हैं। सन् 1982 में दादा साहब फाल्के अवार्ड और 1992 में पद्म भूषण से नवाजे गए थे। संगीतकार नौशाद लखनऊ से 1937 में फिल्मों में किस्मत आजमाने बम्बई पहुंचे और संघर्षरत रहते हुए 1940 में भवनानी प्रोडक्शन की फिल्म प्रेम नगर से अपना फिल्मी करियर शुरू किया जिसके निर्देशक थे शुरुआती दौर के प्रमुख निर्देशक एम भवनानी। अपनी पहली फिल्म के बाद 64 सालों में केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया लेकिन सफल फिल्मों के संगीत के जरिए उन्होंने लोगों को झूमने पर मजबूर किया और मुम्बई में 5 मई 2006 को 86 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से कूच ही नहीं कर गए, बल्कि अपनी संगीत रचना की अमिट छाप भी फिल्मी संगीत की रचना करने वालों के लिए छोड़ गए।
1948 में प्रदर्शित वाडिया फिल्म्स की फिल्म मेला के गीतों ने जिस तरह लोगों को दीवाना कर दिया था वैसी लोकप्रियता दूसरों को कम ही नसीब हुई है। इस फिल्म के निर्देशक थे एस यू सन्नी जिन्होंने नौशाद को बम्बई पहुंचने के बाद संघर्ष करते हुए कुछ सुझाव दिए और उनकी हौसला अफजाई की थी। नौशाद के संगीत में शकील बदायूंनी का लिखा मोहम्मद रफी का गाया गीत– ये जिन्दगी के मेले दुनिया में कम ना होंगे… तो अमर हो ही गया। दूसरे गीत– गाये जा गीत मिलन के, मोहन की मुरलिया बाजे, दिल का फसाना किसे सुनाए भी मुकेश-शमशाद की आवाज में कम न थे जिन्हें नरगिस-दिलीप पर फिल्माया गया था। इसमें अन्य कलाकार थे जीवन, रूपकमल, रहमान, अमर और जुबैदा। इस फिल्म की कहानी भी नौशाद की ही देन है जो उन्होंने कथा लेखक अजीम वाजिदपुरी से लिखवायी। इस गीत का भाव भी नौशाद को देवा शरीफ बाराबंकी से लौटते समय उनके पड़ोसी पंडित जी के शब्द से मिला था— बेटा यही तो है दुनिया का मेला…। साथ ही एक शेर “दुनिया के जो मजे हैं हरगिज़ कम न होंगें”… बस यहीं से मिली थी अजर अमर गीत की लाइन।
नौशाद साहब ने कई बार अपनी मधुर संगीतमय फिल्म रतन का जिक्र जरूर किया है। इसलिए कि रतन के बाद की फिल्मों में जब संगीत कम्पोजिंग कर रहे थे तभी उनकी दादी ने उन्हें शादी के लिए लखनऊ बुला लिया। तब तक रतन फिल्म के सारे गीत देश भर में धुआंधार से बज रहे थे। वहां काम पूरा करके लखनऊ आए और शादी के दिन दूल्हा बनके घोड़ी पर सवार हो गए, तब बैंड वाले उन्हीं की फिल्म रतन के गीत बजाते चल रहे थे। उनके ससुराल वालों को बताया नहीं गया था कि वह फिल्मों से जुड़े हैं बल्कि बम्बई में दर्जी का काम करते हैं।
नौशाद साहब का मानना था कि उत्तर प्रदेश के लोक संगीत का फिल्म रतन में इस्तेमाल करके उन्होंने जो मधुर संगीत की परम्परा चलायी तो उसने ग़जब का चमत्कार तो किया ही और दूसरी भाषाओं की फिल्मों के लिए एक जरूरी विधा भी बन गयी।
नौशाद साहब के अनुसार तब दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हुआ ही था कि फिल्मकार जैमिनी दीवान ने हल्की-फुल्की स्टोरी लेकर एक फिल्म बनायी रतन (1944) जिसके निर्देशक थे एम सादिक और कलाकार थे करण दीवान- स्वर्ण लता। इसमें संगीत का भार उठाते हुए नौशाद साहब ने उत्तर प्रदेश के लोकगीतों की धुनों पर कर्णप्रिय संगीत तैयार किया। अपने गीतों– अखियां मिलाके जिया भरमा के चले नहीं जाना, सावन के बादलों उनसे जा कहो… और जब तुम ही चले परदेस… के बल पर तब मात्र ₹75 हजार में बनी फिल्म रतन ने टिकट खिड़की पर एक करोड़ और गीतों के रिकॉर्ड बेचकर एक करोड़ कमाए थे। तब नौशाद को पहले पांच फिर 3 हजार मात्र पारिश्रमिक मिला था। इसके ज्यादातर गीतों को जोहराबाई अंबालावाली ने गाए थे। देश के सात सुपरहिट फिल्मों के बाद आठवां नम्बर इस अप्रतिम रिकॉर्ड बना चुकी फिल्म रतन का ही है। उस समय काफी दिनों तक युद्ध का माहौल झेल चुकी फिल्मी दुनिया में फिल्म रतन ने अचानक चमत्कार कर दिया था। इसकी संगीत रचना ने तब सचमुच तहलका मचा दिया था। आगे चलकर नौशाद ने उन तमाम नये गायकों-गायिकाओं को नये अंदाज में गवाये जिन्होंने बाद में अपनी पहचान बनायी या फिर मजबूत हुए और गायकी में शीर्ष पर पहुंचे। इनमें नूरजहां, सुरैया, सुरेन्द्र, मोहम्मद रफी, शमशाद, उमादेवी (टुनटुन), मो.अजीज को कौन नहीं जानता।
नौशाद साहब की अमर गीतों वाली फिल्मों की ओर नजर डालें तो प्रेम नगर (1940), कानून (1943), रतन (1944), अनमोल घड़ी (1946), शाहजहां (1946), कीमत (1946), दर्द (1947), मेला (1948), दुलारी (1949), बाबुल (1950), दीदार (1951), आन (1952), बैजू बावरा (1952), उड़न खटोला (1955), मदर इंडिया (1957), कोहिनूर (1960), मुगल ए आजम (1960), गंगा-जमुना (1961), सन ऑफ इंडिया (1962), मेरे महबूब (1963), दिल दिया दर्द लिया (1966), पालकी (1967), राम और श्याम (1967), आदमी (1968), साथी (1968), संघर्ष (1968), गंवार (1970), धर्म कांटा (1982), लव एंड गॉड (1986) व तेरी पायल मेरे गीत (1993) के मधुर संगीत को कोई संगीतप्रेमी कभी भूल सकता है क्या… और यहीं कारण है कि आज का दिन फिल्म संगीत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here